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मधुश्रवां में राजा की बेटी सुकन्या ने यहां छठ व्रत करने की शुरू की थी परंपरा

अरवल। जिले के ऐतिहासिक मधुश्रवां धाम इतिहास के पन्नो पर अपना स्थान रखने वाला एक सुरम्य स्थल है। यहां के लोगों को गर्व है इस धरती पर गर्व है।

 

धार्मिक, ऐतिहासिक, राजनैतिक, सामाजिक तथा आर्थिक क्षेत्रों में भी इसकी अपनी पहचान है। धर्म स्थली के रूप में मधुश्रवां पंचतीर्थ, सती मंदिर लारी, बेलसार खटांगी, किजर सहित अन्य धार्मिक उपासना स्थल महत्वपूर्ण है|

 

मधुश्रवा के मधेश्वरनाथ के लोगों में चर्चा का विषय है। यहीं पर मधु नामक राक्षस का वध हुआ था। कुश का एक दिव्य वाण बना कर राक्षस आज भी यहां तालाब में स्नान करने तथा बाबा भोले नाथ का दर्शन करने से लोभ, मोह, क्रोध आदि दुर्गुण नष्ट हो | जाते हैं तथा दैविक शक्ति का समावेश होता है।

 

यह धर्म स्थल एनएच 139 पर मेहदिया से दो किलोमीटर पश्चिम की और अवस्थित है। पौराणिक एवं प्राचीन धर्म स्थल होने का प्रमाण धार्मिक ग्रंथों में मिलता है। धार्मिक ग्रंथों एवं जनश्रुतियों के अनुसार कालांतार में ब्रहमपुत्र नगुमुनी गंगा नदी के तट पर तपस्या में लीन थे।

 

उनके साथ उनकी पत्नी फुलोत्मा रहती थी। मुनी के स्नान करने जाने के दौरान | उनकी पत्नी को एक राक्षस उठाकर भृगमुनी ने कुश का एक दिव्य वाण बनाकर राक्षस पर छोड़ा और राक्षस घायल होकर जमीन पर गिर पड़ा। मुनी की पानी गर्भवती थी और उसने एक सुन्दर बालक को जन्म दिया जिसका नाम ध्ययन रखा गया। उसी वक्त इस पौराणिक स्थल का नामाकरण मधुश्रवां किया गया। यह भी बताया जाता है कि प्रसव काल के दौरान मुनी की पानी के शरीर से जो रक्तश्राव हुआ उससे यहां पर एक तालाब का निर्माण हुआ।

 

मधुश्रवां स्थित इस तालाब के बारे में भी एक धार्मिक मान्यता है। जनश्रुतियों के अनुसार जिस स्त्री को संतान नहीं होता है यह अगर सच्चे मन से तालाब में स्नान कर भगवान सारी मन्नतें पूर्ण होती है। इतना ही नहीं उक्त तालाब में स्नान करने से कुष्ठ व चर्म रोग सहित अन्य बीमारियां भी दूर होती है। जनभूति के अनुसार मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचंद्र ने भी गया पिंडदान करने जाते समय पत्नी सीता के साथ यहां रुककर बाबा मधेश्वरनाथ की पूजा अर्चना की थी।

 

यहां यह भी उल्लेख है कि सावन माह में शिवभक्त पहुंचकर बाबा मधेश्वरनाथ पर जलाभिषेक करते हैं। इसका प्रमाण शिव पुराण में भी मिलता है। ऐतिहासिक ग्रंथों के अनुसार राजा की बेटी सुकन्या ने च्यवन ऋषि के दीपक लगे शरीर को कंचन काया में बदलने के लिए सबसे पहले यहां छठव्रत आकाश मार्ग से भागने लगा। मृगुमुनी ने शंकर की पूजा करती है तो तभी यहाँ छठ पूजा करने की परंपरा शुरु की गई थी।

Rajnish Ranjan
Author: Rajnish Ranjan

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