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चाक पर दीयों का आकार देने में जुटे कुम्भकार

  • कोविड काल के बाद पहली बार बफर बिक्री की उम्मीद
  • आंवा लगाने से लगायत बर्तन तैयार करने की होड़

बलिया। दीपों का त्योहार दीपावली वैसे 24 अक्तूबर को है। लेकिन चार दिन पहले से ही दीपोत्सव का बाजार सजने लगा है। हर कोई अच्छे कारोबार को लेकर उत्साहित है। ऐसी ही उम्मीद कुम्हारों जो मिट्टी के दीपक बनाकर बेचते हैं, उनमें भी बनी हुई है। दीपावली पर घर-घर दीपक जलाने की परंपरा है। लिहाजा इस पर्व पर दीपों की मांग बढ़ जाती है। कुम्भकार सपरिवार पूरे मनोयोग से दीपक बनाने में जुटे हुए हैं। लेकिन उनको बिजली झालरों के प्रति बढ़ते आकर्षण से मन में चिंता भी है कि चाइनिज दीपकों के आकर्षण कहीं उनके परिश्रम पर पानी न फेर दे।

बता दें कि दीपावली और छठ पूजा पर मिट्टी के दीपक, बर्तन की मांग अधिक रहती है। पिछले चार दशकों से मिट्टी के बर्तन और दीया बनाते आ रहे दयाछपरा निवासी मंगनी कुम्हार इस बार भी दीपावाली को लेकर वह पूरे परिवार के साथ इस कार्य में जुटे है। उनका कहना है कि दीपावली और छठ पूजा पर मिट्टी के दीपक,बर्तन की मांग रहती है लोगों की मांग पूरी करने के लिए इस उम्र में भी हम पसीना बहा रहे हैं। दयाछपरा के ही फूलचंद का कहना है कि तेजी से बढ़ती महंगाई के चलते उनके व्यवसाय में मुनाफा नहीं रह गया है। चीनी दीपक और झालरों के प्रति प्रभावित किया है उम्मीद है कि इस बार लोग दीपक खरीदेंगे। मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कबेला ने बताया कि पूरा परिवार मिलकर इस मिट्टी से दीया, ढकनी, घड़ा, कलश, चुक्कड़, कटोरी सहित अन्य चीजें बनाते हैं। यह काम पीढ़ियों से करते हैं। महंगाई में जितना लागत लगती है वहीं निकल रहा है कमाई तो पता ही नहीं चलता। वर्तमान समय में दीये को बिक्री तो होती है, लेकिन उतनी नहीं हो पाती है जितनी होनी चाहिए। छठ के लिए बनने वाली कोशी, ढकनी व दीपक सहित अन्य खिलौने भी बनाने का काम शुरू कर दिया गया है। जितेन्द्र  का कहना है कि मिट्टी का दीया और बर्तन बेचकर ही परिवार का भरण-पोषण होता है। इलेक्ट्रिक झालरों से व्यवसाय प्रभावित हुआ है। फिर जिस तरह लोग अपनी परंपराओं की ओर लौटने की बात कह रहे हैं, उससे हमारे दीपक की बिक्री इस बार अच्छी होने की उम्मीद है।

उपला, लकड़ी के हिसाब से मिट्टी बर्तनों का नहीं बढ़ा दाम

बलिया। कुम्हारी का कार्य करने वाले नवका गांव निवासी रामचंद्र का कहना है कि शहर हो या गांव उपला (गोइठा) व लकड़ी का भाव तो समय-समय पर बढ़ते गया। लेकिन उस हिसाब से मिट्टी से बने बर्तनों का भाव नहीं बढ़ा। पहले बैल से खेती होती थी तो उपला नि:शुल्क या फिर बेहद सस्ते मूल्य पर मिलते थे। आज गांव में भी उपला खोजे नहीं मिलता है मिलता भी है तो चार से पांच रुपये प्रति पीस, लकड़ी सात से आठ रुपये किलो मिलता है। जबकि मिट्टी जो देहातों में बिना खरीदे मिलती थी अब पांच सौ रुपये ट्राली मिलने लगी है। वहीं बदलते परिवेश में लोगों का रूझान इलेक्ट्रानिक झालरों के प्रति बढ़ते जा रहा है। लिहाजा कुम्हकारों का पैतृक धंधा धीरे-धीरे कम होता जा रहा है।

घरेलू उद्योगों के बढ़ावा से जगी उम्मीद

बलिया। पैतृक कारोबार को संभाले नवका गांव निवासी रामईश्वर का कहना है कि सरकार द्वारा पारम्परिक व्यवसाय के उत्थान के लिए चलाई जा रही योजनाओं से मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुम्हारों के दिन बहुरने की उम्मीद जगी है। कारोबार के लिए उद्योग विभाग से ऋण, प्रशिक्षण व मोटरयुक्त चाक आदि मिलने लगा है। ऐसे में पैतृक धंधे से जुड़े लोगों में एक नई उम्मीद जगी है।

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Author: Bakwas News

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